२५२ वैष्णवों की वार्ता
(वैष्णव २३७ ) श्री गुसांईजी के सेवक तानसेन की वार्ता
तानसेन बड़ी जाती के थे। उन्हें गान - विद्या का अच्छा अभ्यास था। वे पृथ्वीपति के पास दिल्ली में रहते थे। सरे गवैयों में तानसेन गाने के लिए अवश्य जाते थे। उन्हें लाखों रूपया ईनाम भी मिलता था। पृथ्वीपति का कलावत होने के नाते सब उससे डरते भी थे। एक दिन तानसेन श्रीगुसाईजी के पास गाने के लिए आए। उन्होंने गया तो श्री गुसाईजी ने उन्हें दस हजार रूपया तो ठीक है लेकिन एक कौड़ी इनाम में दी। तानसेन ने पूछा -"महाराज , दस हजार रुपया तो ठीक
है लेकिन एक कौड़ी देने का क्या अभिप्राय है ?" श्री गुसाईजी ने आज्ञा की - "तुम बादशाह के कलावत हो आठ दस हजार रुपया दिए है। और तुम्हारी गायकी की कीमत एक कौड़ी है। तानसेन ने कहा -"में यह बात कैसे मानु ?" श्रीगुसाईजी ने गोविन्द स्वामी को बुलाया और आज्ञा की -"एक पद गाओ " गोविन्द स्वामी ने सारंग राग में एक पद गया - "श्री वल्लभ नंदस्वरूप अनूप स्वरुप कह्यो नहीं जाई। " यह पद सुनकर तानसेन चकित रह गए। उन्होंने विचार किया की श्री गोविन्द स्वामी के सामने हमारा गायन ऐसा लगता है जैसे मखमल के सामने तात का टुकड़ा। वास्तव में इनके गाने के सामने हमारी गायकी की कीमत कौड़ी खरी है। गोविन्द स्वामी से तानसेन ने कहा -"बाबा साहब, मुजको गगन सिखावो।" तब गोविन्द स्वामी ने कहा -"हम तो अन्य मार्गी से भाषण भी नहीं करते है। तब तानसेन श्रीगुसाईजी के सेवक हुए और पच्चीशजर रूपायभेंट धरे। उन्होंने गोविन्द स्वामी से गायन विद्या की दीक्षा ग्रहण की। श्रीनाथजी के सामने पद गाने लगे। तानसेन महीना में एक बार बादशाह के पास जाते थे। बहुधा वे महावन में ही रहते थे। वे एक दिन आसकरनजी से मिले जो आसकरनजी की वार्ता में लिखी है। एक बार तानसेन श्रीनाथजी के पास कीर्तन कर रहे थे। श्री नाथजी सुनकर मुस्कुराए उस दिन से तानसेन ने बादशाह के यंहा जाना बंद कर दिया। वे श्रीगुसांईजी के पास ही रहे। श्रीनाथजी इनसे बोलते और हँसते थे। श्री गुसाँईजी की की से शृणताःजी तानसेन को सब अनुभव करते थे। तानसेन श्री गुसाँईजी के ऐसे कृपा पात्र थे।
|| जय श्री कृष्ण ||
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