२५२ वैष्णवो की वार्ता
(वैष्णव - १७१ ) श्रीगुसांईजी की सेवक मन्नालाल और गोवर्धनदास दोनों भाइयों की वार्ता
मन्नालाल और गोवर्धनदास दोनों भाई श्रीगुसांईजी के सेवक हुए और श्रीगुसांईजी ने कृपा करने इनके माथे सेवा पधारा दी| दोनों भाई ब्रज में रहकर सेवा करने लग गए| ये दोनों श्रीगुसांईजी के यहाँ दर्शन करके और सेवा करके अपने घर आते थे| बहुत दिन तक ब्रज में रहकर इन्होनें पुष्टि रीति की शिक्षा ग्रहण की| फिर ये दोनों अपने गाँव आ गए| अपने देश में श्रीठाकुरजी की सेवा करने लगे| इतने में ही खेल के दिन आये तब राजभोग घर के और राजभोग सरकार फिर श्री ठाकुर जी को खेल खिलाने लगे| श्रीठाकुरजी ने इनसे कहा - "तुम पहले हमें खेल खिलाया करो, तब राजभोग धरा करो|" उन्होंने श्रीठाकुरजी से इस व्यवस्था का कारण पुछा| श्रीठाकुरजी ने आज्ञा की - "जब खेल होता है तो मेरे सखा और सब ब्रज भक्त मेरे साथ खेलने आते हैं| खेल हो चुकने के तुरन्त बाद राजभोग होने पर सब सखा और ब्रजभक्त मेरे संघ भोजन करे तो मुझको बहुत आनंद होता है| उनको साथ देखकर मुझको भोजन बहुत रुचिकर होता है|" उन दोनों भाइयों ने कहा - "हम तो इस व्यवस्था के बारे में श्रीगुसांईजी से पूछेंगे| यदि वे आज्ञा करेंगे तो ही हम ऐसा कर सकेंगे| अन्यथा वे जैसी आज्ञा करेंगे, हम तो वैसा ही करेंगे|" नवरत्न में श्रीमहाप्रभुजी ने कहा है - "सेवा कृति गुरोराज्ञा" सेवा की कृति गुरु की आज्ञा के अनुसार होनी चाहिए|" तब मन्नालाल श्रीगोकुल में आए और श्रीगुसांईजी से निवेदन किया। श्रीगुसांईजी ने आज्ञा की -"पुष्टिमार्ग में दोनों क्रम हैं अत: श्रीठाकुरजी को जैसे रुचे वैसे ही करो|" मन्नालाल तुरन्त ही अपने देश में आए और राजभोग धरने से पहले खेल खिलाने लगे| वे मन्नालाल - गोवर्धनदास श्रीगुसांईजी के ऐसे कृपा पात्र थे| उनको श्रीगुसांईजी की वाणी पर अटूट विश्वास था| वे श्रीठाकुरजी को तो बालक समझते थे| उनका इस निर्मल भाव था|
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जय श्री कृष्ण|
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